विस्मय के भावों से मुक्त हुआ हूं।
जब से जीवन को जीना सीखा है।
सही कहूं, दुःख को जब से पीना सीखा है।
रिसते जख्मों को जब से सीना सीखा है।
अभ्यास कर रहा हूं, अब स्वच्छंद बिहार करुं।
जीवंत भाव मानव गुण को शिरोधार्य करुं।।
पहले तो, भटका था ऊहापोह में डुबा।
विस्मित पथ पर उठते विचित्र इन भाव से।
हानि-लाभ के चलते उलटे-सीधे दाव से।
हाहाकार हृदय में अनुचित प्रश्नों के छाँव से।
अब संभला जो हूं, जीवन से सही व्यवहार करुं।
जीवंत भाव मानव गुण को शिरोधार्य करु।।
पहले तो लोभ अधिक, लाभ का मोह अधिक।
विचित्र था मन के भाव रहूं सुविधा के संग।
इच्छाओं का अतिशय वेग, सुख के हो कई रंग।
अधिक आकांक्षा के भार तले होता था दंग।
अब सत्य समझा हूं, नूतनता को स्वीकार करुं।
जीवंत भाव मानव गुण को शिरोधार्य करुं।।
पहले पथिक था, पथ पर छाँव की आशा पाले।
अपने मन में दुविधा की गठरी सहज संभाले।
मन उन्मत हो चलता था, आँखों पर परदा डाले।
द्वंद्व भाव से ग्रसित हृदय में थे अहंकार के छाले।
अब संभला हूं पथ पर, जीवन का उचित श्रृंगार करुं।
जीवंत भाव मानव गुण को शिरोधार्य करु।।
अब तो मुक्त हुआ हूं, मानव नित कर्म करूंगा।
विनिमय कर लूंगा आदर्श, मंजिल तक जाने को।
कर लूं मानव नित कर्म सहर्ष, नूतनता पाने को।
ज्ञान दीप प्रज्वलित कर लूं, सुंदर छवि बनाने को।
जीवन के नियमों को पढ लूं, उचित व्यवहार करुं।
जीवंत भाव मानव गुण को शिरोधार्य करूं।।
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